पुस्‍तक समीक्षा
 
ज़ाकिर अली रजनीश 

आदिकाल से ही भारतीय समाज की बुनावट कुछ इस तरह से रही है कि यहाँ पर शुरू से ही दो विभाजन पाए जाते रहे हैं। एक शोषक वर्ग और दूसरा शोषित वर्ग। जिसके पास शक्ति रही, सामर्थ्‍य रही वह शोषक बन गया और जो कमजोर पड़ा, वह शोषित होता रहा। समय बदला, लोग बदले, इतिहास बदले, पर एक चीज जो नहीं बदली, वह थी समाज में शोषित लोगों की दशा। चाहे आजादी के 100 साल पहले का जीवन रहा हो अथवा आज का आधुनिक समाज, शोषितों की दशा में आज भी कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। वे शोषित पहले भी थे और आज भी हैं। हाँ आज उन्‍हें एक नाम अवश्‍य मिल गया है, दलित का। कानून में अधिकार भी उन्‍हें मिल गये हैं, आरक्षण भी प्रदान कर दिया गया है, पर कुछ प्रतिशत लोगों की बात अगर छोड़ दी जाए, तो वे आज भी वैसे ही हैं, जैसे पहले हुआ करते थे। 


शोषित आज भी अपनी अलग दुनिया में रहते हैं, उनकी दुनिया, उनका समाज आज भी मुख्‍य धारा से कटा हुआ है। वे आज भी भूखे हैं, नंगे हैं, भूमिहीन हैं। कहने को भूदान के दौर में उनके नाम जमीनें लिख दी गयीं, पर जमीन पर अधिकार नहीं हो पाया, कहने को सरकार द्वारा उनके लिए तमाम सुविधाएँ शुरू की गयी, पर वे बीच रास्‍ते में ही रह गयीं, कहने को उनके लिए बेशुमान मकान बनाए गये, पर वे बिचौलियों के हत्‍थे ही चढ़ कर रह गये।


        इन तमाम स्थितियों की वजह क्‍या है, इन तमाम हालातों से निकलने का रास्‍ता क्‍या है। यह एक गम्‍भीर सवाल है, जो विमर्श की मांग करता है। ऐसा ही विमर्श लेकर आया है रवीन्‍द्र प्रभात का नया उपन्‍यास ताकि बचा रहे लोकतंत्र। रवीन्‍द्र प्रभात एक गजलकार के रूप में जाने जाते रहे हैं। उन्‍होंने हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में ब्‍लॉग विश्‍लेषक के रूप में एक विशिष्‍ट पहचान बनाई है। इसके साथ ही वे परिकल्‍पना समूह के मॉडरेटर के रूप में भी चर्चित हैं।  


बिहार की पृष्‍ठभूमि पर रचा गया यह उपन्‍यास यूँ तो झींगना के दारूण जीवन की दास्‍तान है, पर इस दास्‍तान में लेखक ने दलितों के जीवन के समस्‍त सवालों को बड़ी कुशलता से गूंथ दिया है। पुस्‍तक का यह अंश उसकी प्रासंगिकता को समझने के नजरिए से महत्‍वपूर्ण है:  
हम दलितों का अपना अलग संसार है ताहिरा जी। हम उस संसार को ही सब कुछ समझते हैं, शिक्षा की कमी के कारण। ..आवश्‍यकताएँ अतिन्‍यून। देशकाल, परिस्थिति, राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं। वस्‍त्र के नाम पर विहीटी और आश्रय के नाम पर चार हाथ जमीन। स्‍वतंत्रता के इतने वर्षों के बीत जाने के बाद भी हम नंगे, भूखे, भूमिहीन।(पृष्‍ठ:134) 

   
दलित साहित्‍य के लेखन के समय से ही अक्‍सर यह आवाज भी उठाई जाती रही है कि दलित साहित्‍य वही व्‍यक्ति लिख सकता है, जो स्‍वयं दलित हो। क्‍योंकि गैरदलित व्‍यक्ति उनकी संवेदनाओं को उतनी सहजता, उतनी कुशलता से न तो समझ पाता है और न ही उन्‍हें अभिव्‍यक्‍त ही कर पाता है। पर आलोच्‍य उपन्‍यास को पढ़ने के बाद यह धारणा टूटती सी दीखती है। कारण इस उपन्‍यास में लेखक ने जिस कुशलता से दलित समाज के दारूण और भयावह रूप को चित्रित किया है, उसे देखकर आश्‍चर्यमिश्रित प्रसन्‍नता होना स्‍वाभाविक है।

 काव्‍यात्‍मक शैली और गंवई भाषा के सहारे लेखक ने उपन्‍यास में जीवंतता को भरने का सुंदर प्रयास किया है। आशा है अपनी सार्थक प्रस्‍तुति और सराहनीय कलेवर के कारण यह उपन्‍यास दलित साहित्‍य में चर्चा का विषय बनेगा और दलित साहित्‍यलोक में एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान हासिल करेगा।

पुस्‍तक - ताकि बचा रहे लोकतंत्र (उपन्‍यास) 
लेखक - रवीन्‍द्र प्रभात
प्रकाशक - हिन्‍द युग्‍म, 1, जिया सराय, हौज खास, नई दिल्‍ली-110016
पृष्‍ठ - 136 
मूल्‍य - 250 रू0 
Tags: analysis


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